



नई दिल्ली। JNU Is Being Destroyed? भारत के कुछ चुनिन्दा विश्वविद्यालयों में शुमार जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय अक्सर ही किसी न किसी वजह से विवाद में रहता है। यहां के छात्रों और अध्यापकों पर कभी भारत विरोधी गतिविधियों में शामिल होने का आरोप लगता है, कभी कैंपस की दीवारों पर ब्राह्मणों और बनिया समुदायों के खिलाफ नारे लिखे मिलते हैं, तो कभी दो छात्र गुटों में संघर्ष की खबरे सामने आती हैं। हालांकि आज हम जेएनयू छात्र विवाद और छात्र संघ के संघर्ष की बात नहीं करेंगे बल्कि यहां पढ़ान वाले शिक्षकों के साथ किस तरह का भेदभाव किया जा रहा है, इस पर बात करेंगे। दरअसल, यहां के शिक्षकों को छुट्टी लेने तक के लिए अदालत का दरवाजा खटखटाना पड़ रहा है। इसका एक शर्मनाक उदाहरण सामने आया है।
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‘सबातिकल’ के लिए जाना पड़ा कोर्ट
जी हां जेएनयूं की भाषाविद प्रोफेसर आयशा किदवाई ने ‘सबातिकल’ के लिए विश्वविद्यालय प्रशासन के सामने आवदेन दिया था, जिसे स्वीकार करने से विश्वविद्यालय प्रशासन ने इनकार कर दिया और कहा, एक ‘सबातिकल’ लेने के सात साल बाद ही दूसरा ‘साबितकाल’ मिल सकता है। चूंकि आयशा के साबितकाल को अभी पांच ही साल बीता था, ऐसे में उन्हें दूसरा ‘सबातिकल’ नहीं दिया जा सकता है। हालांकि अब उन्हें ‘सबातिकल’ मिल गया है, लेकिन इसके लिए उन्हें दिल्ली हाईकोर्ट की शरण में जाना पड़ा।
‘सबातिकल’ देने से डीयू ने कर दिया था इनकार
हालांकि, ख़ुद जेएनयू के ‘आर्डिनेंस’ में दो ‘सबातिकल’ के बीच की अवधि 5 साल की है न कि 7 साल। इसके अलावा विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के नियमों के मुताबिक, किसी भी प्रोफेसर को ये अधिकार है कि एक ‘सबातिकल’ लेने के 5 साल बाद व दूसरा ‘सबातिकल’ ले सकता है और आयशा इस नियम पर पूरी तरह से खरी उतर रही थीं। उनके पहले ‘सबातिकल’ का 5 साल पूरा हो चुका था। ऐसे में जेएनयू और आयोग के नियमों के अनुसार, वे इस अवकाश की अधिकारी थी, लेकिन विश्वविद्यालय प्रशासन ने कार्य परिषद के फ़ैसले का हवाला देकर उन्हें ये अवकाश देने से इनकार कर दिया था।
कोर्ट के सवाल का जवाब नहीं दे सका विश्वविद्यालय प्रशासन
उधर, किदवई ने जब इस सबंध के कोर्ट में याचिका दायर की और ‘सबातिकल’ की मांग की तो, अदालत ने विश्वविद्यालय से सवाल किया कि क्या अपने ‘आर्डिनेंस’ और यूजीसी के निर्देश से अलग अपनी कार्य परिषद के निर्णय के आधार पर जेएनयू किसी अध्यापक को ‘सबातिकल’ देने से मना कर सकता है? लेकिन विश्वविद्यालय के पास कोर्ट के इस सवाल का कोई जवाब नहीं था। ऐसे में वह अपने बचाव में कोई तर्क नहीं दे सका। उसने अदालत को कहा कि वह कोई रास्ता निकालेगा और आख़िरकार उसे आयशा किदवई को ‘सबातिकल’ देना पड़ा। यहां ये कहना गलत नहीं होगा कि विश्वविद्यालय प्रशासन और यहां के प्रोफेसरों के बीच संवादहीनता और विवाद इस हद तक बढ़ जाये कि किसी एक को अदालत का दरवाजा खटखटाना पड़े तो ये बेहद शर्मनाक है, लेकिन पिछले 10 सालों से यहां कुछ ऐसा ही हो रहा है।
कोर्ट के आदेश पर मिली छुट्टी
आयशा किदवई से पहले यहां के अंग्रेजी के प्रोफेसर उदय कुमार को भी किसी शोध के लिए छुट्टी चाहिए थी, लेकिन जेएनयू प्रशासन ने उन्हें भी छुट्टी देने से मना कर दिया था, जब उदय कुमार ने उससे इसकी वजह पूछी, तो विश्व विद्यालय प्रशासन ने साफ़ कहा कि, अध्यापक को छुट्टी का अधिकार नहीं है। इसके बाद उन्होंने ने कोर्ट की शरण ली और अदालत के आदेश पर प्रशासन को उन्हें छुट्टी देनी पड़ी।
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शोध के लिए मिलता है ‘सबातिकल’
बता दें कि, विश्वविद्यालय में अध्यापन के अलावा बहुत से प्रशासनिक काम होते हैं। इसके साथ ही प्रोफेसर्स से ये भी उम्मीद की जाती है कि वे शोध का भी काम करें, जिसके लिए उन्हें समय की जरूरत होती है, लेकिन अध्यापन और प्रशासनिक जिम्मेदारियों की वजह से उन्हें शोध के लिए समय नहीं मिल पाता है। यही वजह है कि इस प्रकार के अवकाश की व्यवस्था दुनिया के सारे विश्वविद्यालयों में की गई है, जिसे ‘सबातिकल’ कहा जाता है। अब यहां सवाल ये उठता है कि जब ये व्यवस्था दुनिया भर के विश्वविद्यालयों के लिए है, तो किसी प्रोफेसर को इसके लिए अदालत क्यों जाना पड़े। इस बारे में, जेएनयू के पिछले कुलपति, जो वर्तमान में यूजीसी के अध्यक्ष हैं, का कहना है कि एक शोध के बाद ठंडाने की अवधि होनी चाहिए। यही वजह है कि दो अवकाशों के बीच का अंतर बढ़ाकर 7 साल किया गया है। इसके जवाब ने प्रोफ़ेसर किदवई का कहना है कि शोध और अध्ययन तो निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है, उसमें ठहराव और ठंडाने जैसी कोई व्यवस्था होने का कोई मतलब नहीं है।
प्रोफेसर्स को किया जा रहा परेशान
यहां ये भी बताना आवश्यक है कि, जो आयशा किदवई के साथ हो रहा है, वैसा सबसे साथ नहीं होता। किदवई के दो सहकर्मियों का अवकाश विश्वविद्यालय प्रशासन ने मंजूर कर लिया था। ऐसे में यहां ये कहा जा सकता है कि आयशा कुलपति और प्रशासन की आलोचक रही हैं, शायद इसी वजह से उन्हें छुट्टी नहीं दी गई। इसके अलावा जेएनयू ने पिछले 10 सालों में कुछ अनचाहे अध्यापकों को दंडित करने के कई और क्रूर तरीक़े अपनाये हैं। वहीं करीब 45 प्रोफेसर्स के नाम की चार्जशीट भी जारी की गई है, जिन्होंने कभी प्रशासन के ख़िलाफ़ प्रदर्शन किया था। इस लिस्ट में शामिल कुछ लोग रिटायर हो चुके हैं, तो कुछ लोग सेवा में हैं।
रिटायर होने के बाद रोक दी गई पेंशन और अन्य बकाया राशि
बताया जाता है कि, जो लोग रिटायर हो चुके हैं प्रशासन ने सजा के तौर पर उनकी पेंशन और शेष बकाया देने से इंकार कर दिया। ऐसे में रिटायर प्रोफेसर्स को भी अदालत जाने के लिए मजबूर होना पड़ा। बाद में प्रशासन ने कई तरह के प्रलोभन देकर उनसे मुक़दमा वापस करा लिया, लेकिन उनकी समस्याएं नहीं हल की। बताया जाता है कि जैसे की प्रोफेसर्स ने मुकदमा वापस लिया, उनके सामने एक नई शर्त रख दी गई कि वे माफ़ी भी मांगे और एक निर्धारित दंड-राशि पी एम केयर फंड में जमा कराएं। इसके अलावा आज भी कई से ऐसे प्रोफेसर हैं, जो प्रमोशन का इंतजार कर रहे हैं, लेकिन उन्हें प्रोन्नत नहीं किया जा रहा है।
मनपसंद लोगों को दी जा रही नियुक्ति
इनमें से कुछ ने प्रमोशन के लिए कोर्ट का दरवाजा भी खटखटाया, जिनमें से एक मामले के कोर्ट में विश्वविद्यालय प्रशासन को इंटरव्यू का आदेश दिया, जिसके बाद उन प्रोफेसर का इंटरव्यू हुआ, लेकिन हर तरह से योग्य होने के बाद भी उन्हें अयोग्य घोषित कर दिया गया। इन सब मामलों को लेकर कुछ प्रोफेसर्स का कहना है कि इस तरह की सोची समझी रणनीति के तहत जेएनयू को खत्म करने की कोशिश की जा रही है। इसके लिए यहां लंबे समय से अध्यापन का काम रहे प्रोफेसर्स को उपेक्षित कर उनका मनोबल तोड़ा जा रहा है। यहां वरिष्ठता को दरकिनार कर मनपसंद कनिष्ठों को प्रमोशन दिया जा रहा है और उनसे मन मुताबिक काम कराया जा रहा है। सूत्रों के हवाले से बताया जाता है कि पिछले 10 वर्षों में यहां जो भी नियुक्तियां हुई हैं, उनमें अधिकतर की योग्यता अकादमिक नहीं बल्कि राजनीतिक है।
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