



डॉ. अजय कुमार तिवारी
Real Life And Movies: भारतीय समाज में पुरूष की सोच समय और परिस्थितियों के अनुसार बदलती रहती है। ऐसे में महिला-पुरुष, प्रेमी-प्रेमिका जीवन में मूल्यांकन के दौर से गुजरते हैं। उनके लिये जीवन की दहलीज की शुरूआत चयन और चुनाव से हो कर तय होती है। यहां जिन्दगी का चयन आधा-आधा नहीं होता है बल्कि प्रत्येक आधा दूसरे के आधे में अतिक्रमण कर जाता है। नसीब अपना अपना (1986) फिल्म के लिए एस.एस. बिहारी के लिखे गीत,
भला है बुरा है जैसा भी है,
मेरा पति मेरा देवता है।
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भारतीय नारी के लिए कई संदेश छोड़ जाता है। गीतकार ने तात्कालीन परिस्थितियों और मर्यादा का ख्याल रखते हुए नायिका की बातें पेश की थी। उन्होंने संयुक्त परिवार और पारिवारिक रिश्ते को ज्यादा महत्व दिया था। भारतीय परिवेश में विवाह जन्म-जन्मांतर का बंधन है और उसका निर्वाह करना है। इसीलिये महिला के लिए पति देवता नजर आता है। वह बार-बार अपने नसीब को तौलती है और मान लेती है जैसा भी है, मेरा पति मेरा देवता है। ज्ञात हो कि तात्कालिक परिस्थितियों के अनुसार वर्तमान बहुत बदल चुका है। सफर (1970) फिल्म के लिए श्यामलाल बाबू राय (इन्दीवर) का लिखा गीत
जो तुमको पसन्द हो वही बात कहेंगे,
तुम दिन को अगर रात कहो तो रात कहेंगे…
में नायक का समर्पण पुरूष समाज की सीमा पार कर जाता है। बल्कि वह पुरूष अपनी बौद्धिकता, अनुभव को भी न्यौछावर कर देता है। समय के साथ नायक का चरित्र और उसकी अपेक्षा, उम्मीदों के साथ बदलती जाती है। वह अब अपनी बौद्धिकता के साथ भौतिकवादी बन जाता है। शादी के बंधन के साथ जीवन की सचाई नजर आने लगती है। वह जीवन के प्रत्येक पल को किसी भी शर्त पर छोड़ना नहीं चाहता है।
भारतीय समाज पर असर डालती हैं फ़िल्में
यह बंधन जन्म-जन्मांतर का है लेकिन यह भी है कि जिन्दगी ना मिलेगी दोबारा…। जिन्दगी ना मिलेगी दोबारा फिल्म 15 जुलाई 2011 में प्रदर्शित हुई है जिसका सीधा सा संदेश था कि जिन्दगी काटो नहीं, जिन्दगी जियो…क्योंकि जिन्दगी दोबारा नहीं मिलेगी। इस संदेश का भारतीय समाज पर असर भी हुआ। उसने जीने के तरीके बदल दिये।
युवाओं ने एक ओर हर कुछ हासिल करने की जिद ठान ली तो दूसरी ओर उसके पहलू में गिर गये। याद होगा ‘दिल ही तो है’ (1963)फिल्म के लिए साहिर लुधियानवी ने
तुम अगर मुझको न चाहो तो कोई बात नहीं,
तुम किसी और को चाहोगी तो मुश्किल होगी…
लिखा, जो एक संदेश था कि प्रेमिका के लिए शर्त दे दी जाती है। वह एक ऐसे प्रेमी के लिए है जो सिर्फ उसी को चाहने की इजाजत देता है बल्कि किसी और को चाहोगी तो मुश्किल होगी। इसका सीधा सा तात्पर्य तुम को प्रेम हो या ना हो सिर्फ तुम मेरे लिये हो…। बदलते परिवेश के साथ कुछ शर्तें वीभत्स भी हो गयीं। महिला, प्रेमिका को नायक या प्रेमी ने वस्तु के रूप में मान लिया। ‘डर’ (1993) फिल्म में
तू हां कर या ना कर
तू है मेरी किरन…
गीत फिल्माया गया। यहां महिला की पृष्ठभूमि और सीमित हो गयी। उसे अपने बारे में सोचने का अधिकार भी पुरूष समाज का नायक सीमित कर देता है। जबकि किसी महिला के प्रति पुरूष का एकतरफा सोचना मानसिक बीमारी जैसा है। यह रिश्ता है तो दोनों को निर्णय लेने का अधिकार भी मिलना चाहिए। एक व्यक्ति है और दूसरा वस्तु है, ऐसा स्वीकार्य नहीं होगा।
पुरुष समाज के लिए चुनौती
यहां चालाकी दोनों ओर से होने लगी है। एक तरफा चाहत को झटका लगा, तो जिन्दगी के रिश्तों में भी दरारें आयीं। लिव-इन रिलेशन ने जहां उन्मुक्त जीवन दिया, तो पुरूष समाज के लिए चुनौती भी आयी। विवाह की उम्र के साथ अमनस्क स्थिति भी बनती जा रही है। यहां यह तय करना होगा कि ना तो पुरूष जबरिया हां कर या ना कर कि स्थिति में पहुंचेगा और ना ही महिला ऐसा करेगी।
तू प्यार है किसी और का
तुझे चाहता कोई और है
तू पसन्द है किसी और की
तुझे मांगता कोई और है।
प्यार, प्रेम, मोहब्बत में सचाई पहली शर्त है और यह स्त्री-पुरूष दोनों के लिए है। समाज का प्रत्येक दौर रिश्तों के प्रति ईमानदार रहा है और जब-जब रिश्तों में विचलन आया तो समाज की संरचना को धक्का लगा है। इसलिये समाज और रिश्ता, स्त्री और पुरूष दोनों के द्वारा दोनों को बचाना है।
जिन्दगी प्यार का गीत है,
इसे हर दिल को गाना पड़ेगा।
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